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NumaN Mishra: Ever since my childhood Word-Play has always amazed me. The Knitted use of Words has always enlightened a sense of achievement in me. Now That I have established myself as a Industry Endorsed Software Professional. With the innate quality of writing, which is the core essence of any journal, I think it’s time to pursue the Dream I have always cherished; A poet who carves Sketches in pages of time, A Novelist Who portrays Pictures through his words, A columnist in the Most Prestigious monthly (The National Geographic Magazine). I really don't have anything to do with the idiot below me aka BQ. I don't take any responsibility of any statements of Baikunth Bihari Baithe.
Baikunth Bihari Baithe Ji (BQ): A learned from the Bhojpur district who in his own words is as unemployed as Lalu Prasad in Sushashan. He specializes in giving personal remarks on politicians and expert suggestions in political issues. He also has an uncanny knack of climbing trees, grazing goats, cutting hey and his hobby is pretending to read newspapers but only upside-down. Hum upar wale Pandi ji aka Patrakar baba aka Numan Mishra ke kalpanik sahyogi hain. Haan ye baat hai ki hum unki tarah graduate nahin hain, magar unse kahin zyada samajhdaar aur funnyyy hain. Hamari angrezi ka Mazak udane se pehle apne daant gin lijiyega. hihihihi.
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Saturday, December 31, 2011
‘Satkon Ka Singhashan’ for the Little Master, By-Numan Mishra
Friday, December 30, 2011
ईन्सेफ्लाइटिस, एक विकासशील देश को अभिशाप !! BY-Numan Mishra
ईन्सेफ्लाइटिस एक एसि लाइलाज महामारि है जो आमतौर पर दुनिया के 70% जगहो पर पनपति है। जापानी ईन्सेफ्लाइटिस दरअसल एक प्रकार कि ईन्सेफ्लाइटिस हि है, जिसका कारक एक जीवाणु है। यह बीमारी प्रायः: दक्षिण पश्चिम एशिया में पायि जाती है, जिसका जीवाणु मूलतः: पालतू सुअरों एवं जंगली पक्षियों के द्वारा इंसानी बस्तियों तक पहुचाया जाता है। जहाँ से इन्हें एक प्रकार का मच्छर क्यूलेकस ट्रिटाईनियोराईन्क्स इनसानों तक पाहुचा देता है। यह बीमारी सभी उम्र के लोगों को हो सकती है, पर बाच्चों में इस बीमारी का असर प्रायः: भायावह होता है। बीमारी एक साधारण बुखार के रूप में सुरु होती है जो पाच से दस दिनों तक रह सकता है। परंतु लापरवाही एवम अच्छे इलाज कि कमी कि वजह से यह दिमाग़ी बुखार में परिवर्तित हो जाती है। मरिज के दिमाग के उत्त्क सक्रमित होकर सुजने लगते है, तथा रोगि के शरिर का सुरक्षा तंत्र उसके दिमाग के उत्त्को को बिमारि का कारक सामझ कर नष्ट करने लगता है। जिसके बाद मारिज़ कोमा में चला जाता है, जहां से उसे बचा पाना नामुमकिन हो जाता है। 2008 के एक स्वतन्त्र सर्वेक्षण मे यह पता चला कि दुनिया भर मे इस बिमारि से सालाना 50,000 लोग प्राभावित हुए, जिनमे से 10,000 लोग, यानि लगभग 25% बच नहि पाते। ये आकडे तब से अब तक और बढ़ॆ हि है। यह साबित करता है कि इस बिमारि से पिडित लोगो मे म्रित्युदर बहुत अधिक है। हालाकि जो चुनिन्दा लोग इस महामारि से पिडित होकर बच जाते है, उन्कि स्तिथि मौत से भि बद्त्त्र हो जाती है। मरिज़ो मे लम्बि अवधि तक इस बिमारि का असर रह्ता है जैसे कि मानशिक असनतुल्न नर्भस ब्रेकडाउन। इस बिमारि का आभि तक कोइ असरदार इलाज़ नहि मिल पाया है। हालाकि इस के बाबत कइ जागहो पर काम चल रहा है। इस माहामारि का वाएरस एक प्रात्य्यारोधक वाएरस होता है, जिस पर बहुत सारि एन्टिवाएरल दवाओं का असर नहि होता।
पूरे भारत में ही इस बीमारी का क़हर रहा है, परंतु बिहार, यूँ0पी0, उड़ीसा व अन्य पिछड़े राज्यों में इस बीमारी ने आत्यधिक तबाही माचायि है। भारत में इस बीमारी का पहला सार्वजनिक मामला 2004 में आया था, जिसके बाद इसके कइ मामले साल दर साल आते हि रहे। सरकारि हावाले कि बात करे तो इस बिमारि को 2007 मे लगभग पूरी तरह मिटा दिया गया था। मगर इस बीमारी का कारक किसी तरह जीवित रह गया। पूरे भारत से इस साल इस बीमारी ने हज़ारो बच्चों कि जाने ली है।
वहीं बिहार में इस बीमारी ने एक अभिशाप का रूप ले लिया है, यहाँ हर रोज़ औसतन एक बच्चा इस बीमारी से जंग हार कर मौत कि मुह में जा रहा है। बिहार के गया जिले से अब तक 90 बच्चो कि जाने गयि है, इस्मे से । बिहार के हर जिले मे कहि न कहि एकाध सुवरखाना आज भि मिल जायेगा। इतना हि नहि रास्तो और गलियो मे भि आए दिन आवारा सुवर मिल हि जाते है। इसके अलावा साल के कुछ महिने बिहार अलग-अलग प्रवाशिय पक्षियों के लिये भि रैन बसेरा बनता है, जो कि इस बिमारि के एक और कारक है। ये उसी भारत में हो रहा है जाहां पोलियो और चिकन गुनिया जैसी बीमारियों से कई बच्चों कि जाने पह्ले भि जा चुकि है। महानेताओ व विदद्वानो से आल्न्क्रित इस देश मे बिमारियो से लड्ने व उन्के पुर्ण उन्मुलन के लिये वक्त दर वक्त कइ सिफ़रिशे और सुझाव आये है। लेकिन आज भि इस देश मे इस बिमारि से एक बाच्चा मरा होगा, क्या यह हमारी अंत: आत्मा के लिए आपार वेदना कि बात नहीं है?
अमरीका जैसे विकसित देशों में ऐसे हेल्थ रिफ़ार्म कानून बानाये गए है, जिससे नागरिकों को निसुल्क स्वास्थ्य समबन्धि सेवये मुफ़्त में मिल सके। हमारी आर्थ्व्यवस्था उतनी उम्दा नहीं है, पर क्या हम बाक़ी सारी चीज़ों को किनारा कर स्वास्थ्य सेवओ पर ज़ोर नहीं दे सकते?
बायो-टेक्नोलोजि विभाग, भारत के सचिव एम0 के0 भान का काहना है, कि फड्स कि कमी कि वजह से हम इस बिंमारि को पूरी तरह नहीं मिटा पाए। इसके अलावा लोगों के रहन सहन कि वजह से भी ये बीमारी इतनी फैली है। उनहोने कह कि साफ़ पानी ना मिलना, खुली नालियाँ, आवारा जानवर, घनी बसी हुई आबादी तथा लेगो में अपने स्वस्थ्य के प्रति जागरुकता कि कमी इस बीमारी कि सबसे बड़ी वजहें है।
सवाल ये भी उठता है कि क्या हम इस बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए नैतिक रूप से तैयार है? या फिर हम हर बार कि तरह सोते रहेंगे, और कारवाई तभी होगि जब नुकसान बहुत ज़्यादा हो जाएगा। इस देश में एक तरफ़ तो क्रिकेट वल्ड कप एवं कौमन वेल्थ खेलो के नाम पर इतना पैसा बाहाया जाता है, वही इस देश कि भावी पीढ़ी ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही है। क्या हर बात पर अपनी प्रतिक्रिया देने वाले इस समाज में इस मुद्दे पर बहस करने कि ईछा शक्ति है?