आकाश टॆब्लेट वास्तविक तौर पर एक निहायत ही रिवोल्युस्नरि ईजाद है, क्योंकि इसे इतने कम ख़र्च में बनाया गया है की दुनिया भर की आई-टी कंपनियों के लिए ये एक अकल्पनीय सच्चाई के तौर पर उभर कर आया है. आकाश के जिस मॉडल को अभी पेश किया गया है, उसका ऑपरेटिंग सिस्टम एंड्रॉयड 2.2 है। इसमें 366 मेगाहर्त्ज का प्रोसेसर और बैटरी 2100 एमएएच की है। इसमें वाईफाई कनेक्टिविटी ही दी गई है। इसे आप वेबसाइट पर अभी ऑर्डर कर सकते हैं। लेकिन आप अगर इसके अडवांस्ड मॉडल को देखें तो वह बेहतर सौदा लगता है। महज़ 500 रुपये ज़्यादा में आपको एंड्रॉयड 2.3, कॉर्टेक्स ए8 788 मेगाहर्त्ज प्रोसेसर, 3200 एमएएच की बैटरी और जीपीआरएस कनेक्टिविटी मिलेगी। वेबसाइट के मुताबिक़, आप इसमें सिम और फ़ोन के फ़ीचर का भी फ़ायदा उठा पाएंगे डेटाविंड के मुताबिक़, यूबीस्लेट के स्टूडेंट वर्जन को ही आकाश का नाम दिया गया है। सात इंच के इस टच स्क्रीन लैपटाप में दो यूएसबी का पोर्ट है और इसकी बैटरी में तीन घंटे कार्य करने की क्षमता है। यह लैपटॉप सौर ऊर्जा के उपयोग से भी चल सकता है। इस उपकरण में वर्ड, एक्सेल, पावर पॉइंट, पीडीएफ, ओपन ऑफ़िस, वेब ब्राउजर और जावा स्क्रिप्ट भी संलग्न है। इसमें जीप, अनजिप तथा वीडियो स्ट्रीमिंग सुविधा भी है। इस पर आप इंटरनेट सर्फिंग, ई-मेल, गेमिंग, ई-बुक्स जैसे फ़ीचर का इस्तेमाल कर सकेंगे।
सरकारी स्कूलों मे बच्चों को यह टैबलेट सब्सिडी के साथ अगले साल से दिए जाने का प्लान है। इतने कम दाम में इस समय बाज़ार में आपको इंटरनेट कनेक्टिविटी वाले सस्ते फ़ोन भी नहीं मिलेंगे. ऐसे में इसे टच-स्क्रीन और टैबलेट एक्सपीरियंस के लिए एक बहुत बढ़िया एंट्री लेवल प्रॉडक्ट माना जा रहा है. भारत जैसे देश में जहाँ प्रति व्यक्ति आय कम है किसी भि आम माता-पिता के लिए अपने बच्चों को कंप्यूटर ख़रीद कर देना कठिन है। ऐसी स्थित में मात्र तीन हज़ार रुपये में मिलने वाला डाटाविन्ड का यूबीस्लेट टैबलेट अधिकांश भारतीयों के सपनों को पूरा करेगा। इस यूबीस्लेट में इंटरनेट का उपयोग भी किया जा सकता है। इससे विद्यार्थियों के सामने सूचना और ज्ञान की एक पूरी दुनिया होगी। सरकार का कहना है की आकाश के माध्यम से आम आदमी की तरक्की में बाधक बनी दीवार 'डिजिटल डिवाइड' को तोडऩा चाहती है. इस प्रोडक्ट की बदौल्लत आम आदमी अपने बच्चों को सही परवरिष देकर इस योग्य बना पायेगा कि वे दुनिया के किसी भी क्षेत्र में कामयाबी हासिल कर सकें। लैपटॉप के 29 प्रतिशत कलपुर्जे दक्षिण कोरिया से, 24 प्रतिशत चीन से, 16 प्रतिशत अमेरिका से एवं पाँच प्रतिशत अन्य देशों से प्राप्त किए गए है। इसके 16 प्रतिशत कलपुर्जे भारतीय हैं ।
सिब्बल ने कहा है कि इस सस्ते टैबलेट का सपना साकार होने की घटना भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगी। हमारी चाहते है कि यह केवल भारत के छात्रों के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों के छात्रों के लिए भी इंटरनेट के मध्यम से ग़्यान कि सुगमता का द्वार खोले। साल 2020 तक 30 प्रतिशत सकल नामांकन दर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए यह पेहेल महत्वपूर्ण साबित होगी जिसके जरिये शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जा सकेगा। इस सस्ते लैपटॉप के नाम के बारे में कई सुझाव सामने आए और आकाश पर आम सहमति बनी। इसके पहले इसे साक्षत् नाम दिया गया था, जो कि बाद में बदल कर 'आकाश' कर दिया गया.
आम लोगों व ग़रीब बच्चों को दिमाग़ में रख कर बनाये गए इस टॆब्लेट की क़ीमत जो सरकार ने तय की है वो सारी सब्सिडी लगाने के बाद कुल 1138 रुपये में सभी सरकारी स्कूलों में बहुत जल्द उपलब्ध करा दिया जाएगा. सरकार की बात मानें तो आकाश उन 220 मिलियन बच्चों को इंटरनेट के द्वारा वैश्विक समाज कि मेन्स्ट्रिम से जोड़ने में रामबाण साबित होगा. इससे देश कि शिक्छा प्रनालि का विकास भि अवश्यंभावी हो जाएगी. देशवाशियों का वर्षो पुराना सपना साकार हो जायेगा. अब भारत के बच्चे भी शिक्षा की लौ हाथों मे लिए सूचना एवं विज्ञान के छेत्र में क्रांति का श्रीजन करेंगे. इन सभी दावों को सुनकर भोजपुर ज़िले के बिहियां थाना अन्तर्गत गौरा गाँव में सरकारी स्कूल में पाँचवीं कच्छा में पढने वाला एक छात्र 'मनोहर' बड़ा ही साधारण परंतु उतना ही झकझोर देने वाला प्रश्न पूछता है, "क्या मैं भी उन 220 मिलीयन छात्रों में शामिल हूँ?". सवाल जितना ही व्यंग्यपूर्ण है, जवाब उतना ही कठिन.
बिहार के मधुबनी ज़िले के बिश्पी पंचायत के अंतर्गत आने वाले एक सरकारी स्कूल के बहार आजकल एक पोस्टर चस्पा नज़र आता है, पोस्टर में लिखा है की बच्चों को मिड-डे मिल हर रोज़ दिया जाएगा. यह पढ़ कर वहां से आने-जाने वाले हर शक्स को खुशी होती है, परंतु क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि आख़िर इस दीवार के पीछे के प्रांगण में बच्चों कि भूख मिटी भी है या नहीं? हमने जब इस मिड-डे मिल के पीछे कि सच्चाई का पता लगाया तो यह जाना की वस्तविक्ता तो कुछ और ही है. इस स्कूल की प्रिंसिपल रीना कुमारी ने बताया की जब से उन्होंने चार्ज सँभाला है, उन्हें बच्चों के मिड-डे भोजन को क्रियान्वित रखने के लिए अब तक बस 150 किलो चावल ही मिला है, और वो भी कई महीनों पहले ख़त्म हो चुका है. शिकायतों की झरी सी लगाने के बावजूद आज तक हमारी बातें किसी ने भी नहीं सुनी. ज्ञान के भूखे इन बच्चों को अगर पेट कि भूख से भी लड़ना पड़ेगा तो हमारा समाज के लिये यह आत्म मंथन कि बात है. क्या इस तरह कि परेशनियो के बिच हमरा राषट्र कभी भी शत प्रतिशत साक्षर हो सकता है? इसी स्कूल में पोषक योजना के तहत प्रति छात्र 500 रुपये देने के नाम पर मात्र 24,000 रुपये दिए गए जब की स्कूल प्रशासन ने 30,000 माँगे था. एक नज़र घुमा कर देखने पर पता लगता है बहुत कम हि बच्चे मौजूद है, और जो मौजूद भी हैं उनमें से बहुत कम ही स्कूली पोषाक में हैं. कई बच्चों के कपड़ों के यहाँ वहाँ के फटे-सिले चिथड़ों में से झाँकती कुव्यवस्था का भी नज़ारा बड़ा आम था. मिड-डे मिल की बात करना तब और भी बेमानी लगता है, जब आप ये जानते हैं की कई स्कूलों में तो टोइलेट तक की व्यवस्था भी नहीं हैं. साइकिल योजना के तहत मिली राशि का अगर जायज़ा लगाया जाए तो वास्तविकता के धरातल से घोषणाओं की चादर हट जाती है, सारे वादे, सारी व्यवस्था, सब सपने नंगे दिखते हैं. मुख्यमंत्री साइकल योजना के तहत जो राशि मुहैया कराई गई थी उससे बच्चों ने साइकल ख़रीदी भी है या नहीं, इस बात को जाँचने वाला कोई नहीं है. क्या सरकार का काम बस वादे करना है? और फिर उन वादो को जैसे-तैसे आधा अधूरा छोड़ कर अपना पल्ला झाड़ लेना है? या फिर हर एक योजना की ज़मीनी हक़ीक़त जो जान्च कर, ज़मीदोज़ हलों कि तलाश कर उसे हर एक कदम पर स्वतः निष्पादित करना है. आख़िर इन सारी योजनाओं मे पैसे तो आम आदमी के ही लगते हैं. योजनाओं के क्रियान्वित हो जाने के बाद यही नेता, मंत्री खुद कहते हैं की ये उनकी 'उपलब्धि' है. ऐसे में 'आकाश' को हर एक छात्र तक पहुँचा पाना बहुत टेढ़ी खीर लगता है.
बिहार की रजधानी पटना की ही बात करें तो यहाँ के एक स्थानीय सरकारी स्कूल में छात्रों से जब हमने आकाश टॆबलेट के बारे पूछा तो हमें बड़े रोचक अनुभव प्राप्त हुए. सातवीं कच्छा का एक छात्र राजेश कहता है की आकाश टॆबलेट के बारे में तो उसने पहले कभी सुना हि नहि. बल्कि उसने साक्षात् नाम के एक 1500 रुपये के कंप्यूटर के बारे में कभी अख़बार में पढ़ा था. उसने बताया की कंप्यूटर तो हमारे स्कूल में भी है, विभागीय शिक्षक भी है, परंतु कोई हमें कंप्यूटर छुने ही नहीं देता. शिक्षक ये केह कर दांट पिला देते हैं की तुम लोग कंप्यूटर ख़राब कर दोगे. अब भला हमें जब सिखाया हि नहि जाएगा तो इन्हे सरकार वेतन क्यो देति है. और फ़िर इस डब्बे को क्या स्कूल की शोभा बढाने के लिए मँगाया गया है? राजेश ने ये भी कहा की यदि साक्षात् वास्तव में 1500 रुपये का है तो सस्ता तो है, मगर गरिब बच्चे इसे कैसे ख़रीदेंगे. मेरे पिता जी तो सब्ज़ी बेचते हैं, उनकी दिन भर की कमाई तो इतनी भी नहीं की हमारा गुज़ारा चल सके, कभी-कभी तो हम ठीक से खाना भी नहीं खा पाते. 1500 रुपये की चीज़ हमारे लिए मृग मरीचिका हि है. अगर स्कूल में मिड-डे मिल की व्यवस्था न होती तो शायद मैं स्कूल भी न आता.
राजन वैसे तो नवीं का छात्र है परंतु उसकी बुद्धि का लोहा उससे बड़ी कच्छा के छात्र भी मानते हैं, उसके पिताजी एक छोटे से होटल में काम करते थे परंतु आज कल उनकी नौकरी नहीं रही. जब हमने राजन से पूछा की क्या आकाश टेबलेट तुम्हें पढाई करने में मदद करेगा तो उसने कहा, सच कहूँ तो मैं हमेशा सोचता हूँ की मैं एक बड़ा इंजीनियर बनूँगा परंतु मेरे परिवार की आर्थिक दशा ऐसी नहीं है कि म इतने बडॆ सपने देखूँ. अगर यह सरकारी स्कूल न होता, तो जो दो-चार शब्द जान पाया हूँ वो भी ना जानता. मैंने कभी कंप्यूटर छू कर नहीं देखा, पर मन में हमेशा से ये ख़्वाब रहता था की काश मेरे पास भी एक होता. मैं उस पर इन्टरनेट के द्वारा दुनिया भर में निर्मित बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों, पुलों और बाँधो को देखता, और एक दिन खुद बनाना सीखता. मेरे लिए आकाश वो सपना बन कर आएगा जिसे मैं बचपन से छुना चाहता हूँ. जब हमने उसे बताया की यह टॆबलेट आपको सरकार मुफ़्त में नहीं दे रही है, तो रंजन मायूस हो गया उसने बताया की थोड़ी देर के लिए उसके सपनों को पर लग गए थे. अगर इस टॆबलेट की क़ीमत वाक़ई 1138 रुपये हैं तो मैं भला इसे कैसे ख़रीद पाउँगा, मुझे तो पोषक के लिए भी सरकारी योजना पर निर्भर रहना पड़ता है. अगर सरकार ने यह साइकिल न दी होती तो इतनी दूर आने के पैसे भी नहीं है मेरे पास. इतना कह कर राजन अपनी कच्छा में वापस जाने लगा, जाते जाते उसने एक सवाल और दे दिया हमें जिसने हमारी अंतर-आत्मा को एक बार फिर हिला दिया. उसने पूछा "क्या सरकार ग़रीब बच्चों के लिए भी कंप्यूटर का इंतज़ाम करेगी"?
ददन दसवीं का छात्र है उसके पिता जी पुलिस में हैं घर का गुज़ारा तो अच्छे से चल जाता है. परंतु वो चार भाई बहन है, इस लिए उसे हर चीज़ मिलती तो है, पर किश्तों में. जब हमने उससे पूछा की अकाश टॆबलेट क्या है जानते हो? उसने टपाक से जवाब दिया 'टॆबलेट'! वो क्या होता है, मैं तो बस एक ही टॆबलेट जनता हूँ जो की बीमारी में खाई जाती है. हमने उसे सारी बात बताई, और पुछा की क्या वो आकाश टॆबलेट का इस्तेमाल अपनी पढाई में करेगा ? उसने तो हमे दो टूक में कह दिया की नहीं, मैं तो स्कूल पढने आता ही नहीं, यहाँ पढाई कौन करता है? शिक्षक सारी दोपहर धूप सेकते हैं, बच्चे हुड़दंग करते रह्ते हैं. साइकिल योजना के द्वारा मिले पैसे भी मैंने उड़ा दिए हैं, पिता जी की इसकी भनक तक नहीं लगी. अंत में हमने उसे पढने के लिए एक अँग्रेज़ी अख़बार दिया. हम बिल्कुल चौक गए, दसवीं का छात्र होते हुए उसे अख़बार पढने में बहुत कठिनाई हो रही थी. हमने उससे पूछा की क्या स्कूल ने तुमसे साइकिल की रसीद नहीं माँगी ? उसने बताया की माँगी तो थी, पर मैंने स्टेशन के एक साइकिल दुकान से 300 रुपये में बनवा कर दे दीया, सभी ऐसा ही करते हैं. हम फिर दंग रह गए, हमने पूछा तो आख़िर ये आकाश टॆबलेट का तुम करोगे क्या? उसने कहा की एक मिठाई भी मेरे घर में चार टुकड़े होकर ही मिलती है, ये आकाश तो मेरे लिए छुना नामुमकिन है. और अगर मुझे मिलेगा भी, तो शायद मैं उस पर गेम खेल कर उसे तोड़ ही दूँगा, जैसे की मैंने अपनी मोबाइल को तोड़ दिया है. इतना कह कर वो हमें एक बड़ी महँगी मोबाइल दिखता हुआ चला गया. हम फिर अवाक् थे, सरकारी व्यवस्था की कमियाँ निकालने का हमारा इरादा कतई नहि था, परंतु जो दिख रहा था उससे आँखें चुराना भी हमने उचित नहीं समझा.
नवीं के एक छात्र बंटी से भी हमने बात किया, उसने बताया की वो आकाश टॆबलेट के बारे में बहुत दिनों से जानता है. उसने ये भी बताया की वो सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता है. उसके पिता जी एक फोर्थ ग्रेड सरकारी कर्मचारी हैं, उनकी मासिक आय बस इतनी ही है की 10 सदस्यों के परिवार का भरण पोषण हो ज़ाए. इसके बावजूद बंटी के पिताजी ने बंटी की पढाई में कोई कमी नहीं की. छह साल की उम्र से ही बंटी के घर में एक पेर्सनल कंप्यूटर है, जिसे वो बखूबी चलाना जनता है. बंटी के पिता जी ने उसे हर वो सुख सुविधाएँ दी हैं जिससे उसे अपने आप को एक कुशल सॉफ्टवेर इंजीनियर बनाने में मदद मिलेगी. आकाश के बारे में वो हमें खुद बताता है, की यदि स्कूल के कैम्पस को वाई-फाई कर दिया जाए तो सारे बच्चों को बड़ी सहूलियत होगी, बचे क्लास-रूम से बैठे बैठे दुनिया भर की सारी जानकारियाँ हासिल कर लेंगे, टॆब्लेट पर ही होम वर्क व प्रोजेक्ट दिखाने में कितनी सहायता मिलती. बंटी से जब हमने पुछा की आकाश के दाम के बारे में क्या कहोगे? उसने भी हमें इशारा किया की जब पोषक और खाने की व्यवस्था सरकार ये मान कर करती है की बच्चों के पास इतने पैसे नहीं हैं, तो ये सोचना बिल्कुल बेतुका है की, वही बच्चे 1000 रुपये ख़र्च कर पाएंगे. हलाकी मैंने अपने पिताजी से कब का कह रखा है की मुझे एक टॆबलेट चाहिए. उन्होंने ने इसके लिए पैसे भी जमा करा दिए हैं, ये जब भी आएगा मैं अपने लिए एक ज़रूर मँगवाऊँगा.
इसके अलावा कई बच्चों व उनके अभिभावकों से हुई हमारी बातचीत में हमने यही निष्कर्ष निकाला की जिन बच्चों को सरकार स्कूल तक लाने में विफल रहती है, वो सरकार के इतने महत्वाकान्छि योज्नओ से खुद को बहुत दुर पाते है. जिन बच्चों को मुफ़्त कि पोषक, भोजन व साईकल का लाभ भी स्कूलों तक नहीं खींच पाता, वैसे बच्चों को आकाश कितना लुभा पता है, यह तो देखने लायक ही होगा. एक और प्रस्न सामने आता है कि जिन बच्चो को मुफ़्त पोषक, भोजन व साईकल का लोभ स्कूल में ले भि आयेगा, क्या उनके पास इतने पैसे होंगे कि वे 1000 रुपये का आकाश ख़रीद सके? एसे मे क्या यह योजनाओ का आकाश उन बच्चो के लिए वास्तविक आकाश, जिसे वे कभी छू नहीं पाते, नहीं है? बहरहाल आने वाले वक्त में ये जानना वाक़ई दिलचस्प होगा की जिस शिक्षा की क्रांति का दावा कपिल सिब्बल ने इस टेबलेट के आवरण के वक्त किया था, वो हमारे समाज के वास्तविक भविष्य यानी हमारे बच्चों को किस दिशा में ले कर जाता है.